आज सद्गुरुदेव श्रीहित प्रेमानंद जी महाराज के उपदेशों के अमृत से लाखों लोगों का आत्म-सुधार हो रहा है और लोग उनकी बातों को अपने जीवन में उतार रहे हैं। आज उनके आश्रम में प्रतिदिन हजारों भक्त उनके दर्शन और सत्संग सुनने आते हैं।महाराज जी स्वयं कह रहे है कि इन लक्षणों के आते ही भगवान मिल जायेंगे I इस लेख में उनके द्वारा कहे गये वचनों को अक्षरशः लिखा गया है तो उन्होंने सत्संग में कहे है I
श्रीहित प्रेमानंद जी महाराज प्रवचन :-
सद्गुरुदेव श्रीहित प्रेमानंद जी महाराज कह रहे है कि भगवान कृष्ण अर्जुन से कह रहे है यदि इसी जन्म में भगवान की प्राप्ति करनी है, जीवन मुक्त होना है तो
पहला लक्षण :- यदि गुरु की कृपा से हमारा हृदय ऐसा बनने लगे कि कोई हमें गाली दे, दुख पहुंचाए या अपमान करे और हम अपने हृदय को बचा सकें, तो इसका अर्थ है इतना सहनशील होना, अर्थात जीवन की ऊंचाई पर चढ़ने के लिए सहनशीलता बहुत जरूरी है। आध्यात्मिक पथ. मैं ये आने-जाने वाली अनुकूलता-प्रतिकूलता, मान-अपमान, निंदा-स्तुति इनको तू समान भाव से सह जा, अर्थात समता को धारण कर तो जो अध्यात्म की ऊँचाई पर चढ़ना चाहता हो, ह्रदय इतना शांत होना चाहिये कि किसी के भी मृदु या कटु व्यवहार पर हलचल नही होनी चाहिये I
जब कोई हमारा सम्मान करता है तो विकार उत्पन्न होता है और जब कोई हमारा अपमान करता है तो विकार उत्पन्न होता है। अपमान पर क्रोध का विकार आता है और सम्मान पर हर्ष का विकार आता है और यही आनंद मद को भी जगाता है, भक्ति टूट जाती है। सहनशील रहते हुए दूसरों की भलाई करने की भावना विकसित होगी।
दूसरा लक्षण :- एक सांस भी भगवान से विमुख न हो। इसी जन्म में जीवन मुक्त हो जायेगा। जो त्रिभुवन की शक्ति पाकर भी एक क्षण के लिए भी भगवान का नाम नहीं भूलता, वही महाभागवत है। शास्त्रों में जिन विषयों की चर्चा वैधानिक रूप में की गयी है। इसका वर्णन निम्नलिखित अनुभाग में किया गया है - अपने अधिकारों के अनुसार - जीविका, जीविका तथा धर्म की भावना की पूर्ति के लिए केवल उन्हीं वस्तुओं का सेवन करना चाहिए जो वर्जित हों। उनका त्याग करे तो वह वैराग्य स्थिति को प्राप्त हो जायेगा I
राग- राग से ही अपराध बनते है और रागरहित होकर धर्म पूर्वक विषयों का सेवन करना वो मोक्ष पदवी को प्रदान करने वाला बनता है Iविरक्ति- सम्पूर्ण जगत के एक साथ मिलकर भोग आ जाये और हमारे चित्त को छोभ न पंहुचा पाए उसे विरक्ति कहते है वैराग्यवान I
सम्मान से शून्य :- जब तक उपासक को सम्मान पाने की आशा रहती है, तब तक उसे निःसंदेह नहीं होना चाहिए, तब तक वह अमृत पद का अधिकारी नहीं होता। भगवत गीता के 15वें अध्याय में भगवान ने पद प्राप्त करने के लिए कहा है कि सबसे पहले मान-सम्मान का त्याग करना चाहिए।
आशाबन्ध :- अपने गुरुदेव के चरणों में दृढ़ आशा रखो कि उनकी महिमा से इस जीवन में मेरा काम बन जायेगा। यदि आपको गुरु मिल गए तो इसका मतलब है कि आपको भगवान मिल गए हैं और उत्साह के साथ गुरु द्वारा दिए गए नाम का गायन और कीर्तन करें और अपने आराध्य देवता के गुणों के बारे में बात करें। आप अपने इष्ट-प्रियतम की निरंतर चर्चा करते-करते मदमस्त हो जाएँ, उनका चिन्तन करते रहें तथा समय-समय पर भगवान के तीर्थों का दर्शन करते रहें।
यदि ये लक्षण हमारे जीवन में आ जाएं तो चाहे वह गृहस्थ हो या विरक्त व्यक्ति, उसे जीवन से मुक्त होने से कोई नहीं रोक सकता।
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