श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज गंगा जी को मानते हैं दूसरी मां.आधी रात को त्याग दिया था घर, जानिए कौन हैं

गंगा जी को मानते हैं दूसरी मां.आधी रात को त्याग दिया था घर, जानिए कौन हैं श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज 

टीम इंडिया के स्टार बैट्समैन विराट कोहली कुछ समय पहले पत्नी अनुष्का शर्मा और बच्ची के साथ यूपी के वृंदावन पहुंचे थे, जहां उन्हें एक महाराज जी का असीम आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। 


श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज जी के बारे में वे बातें, जो शायद ही आप जानते हों



यह था असल नाम, दादा-पिता की राह पर बढ़े

श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज मूल रूप से उत्तर प्रदेश के कानपुर में सरसौल के अखरी गांव के रहने वाले हैं। महाराज जी का जन्म सात्विक ब्राह्मण (पाण्डे) परिवार में जन्म हुआ था और उनका असल नाम अनिरुद्ध कुमार पाण्डे था। दादा जी संन्यासी थे और पिता शंभु पाण्डे का भी आध्यात्मिक की ओर खासा झुकाव था, लिहाजा बाद में उन्होंने भी संन्यास ले लिया। गोविंद शरण बड़ी कम उम्र से ही चालीसा पाठ करने लगे थे और जब वह पांचवीं कक्षा में थे, तब वह गीता प्रेस प्रकाशन की श्री सुख सागर पढ़ने लगे थे। वह इस उम्र में जीवन का असल कारण तलाशने लगे थे। उन्होंने तब स्कूल में पढ़ने और भौतिकवादी ज्ञान प्राप्त करने के महत्व पर सवाल उठाया और बताया कि यह कैसे उन्हें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करेगा। यही वह समय था जब वह "श्री राम जय राम जय जय राम" और "श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारी" का जाप करने लगे थे।


आधी रात को छोड़ दिया था घर

नौवीं कक्षा में आने पर उन्होंने तय कर लिया था कि वह अब आध्यात्मिक जीवन की ओर बढ़ेंगे, जो कि उन्होंने ईश्वर तक लेकर जाएगा। वह इसके लिए घर त्यागने को भी तैयार थे। उन्होंने इस बारे में मां को भी सूचित किया था। 13 साल की उम्र में तड़के तीन बजे वह अपना घर छोड़कर चले गए थे। उन्होंने अब नैष्ठिक ब्रह्मचर्य शुरू कर दिया था और वह तब आनंद स्वरूप ब्रह्मचारी के नाम से जाने जाते थे।


गंगा को मानते हैं दूसरी मां

आगे चलकर उन्होंने संन्यास ले लिया और महावाक्य स्वीकार करने पर उन्हें स्वामी आनंदाश्रम नाम मिला। आध्यात्मिक साधक के रूप में तब उनके जीवनकाल का अधिकतम समय गंगा नदी के किनारे बीतता था। ऐसा इसलिए, क्योंकि उन्होंने कभी भी एक आश्रम का पदानुक्रमित जीवन नहीं स्वीकारा। यह वह समय था, जब गंगा उनकी दूसरी मां बन चुकी थीं और वह तब यूपी में बनारस के अस्सी घाट से लेकर उत्तराखंड के हरिद्वार में अन्य घाटों तक घूमा करते थे।

साधना के बीच कभी न बनने देते थे किसी को अवरोध

रोचक बात है कि वह इस दौरान न तो खाने-कपड़ों की चिंता करते और न ही मौसम की वजह से परेशान होते थे। खराब मौसम या फिर जाड़े के समय में भी वह तीन बार गंगा स्नान किया करते थे। यही नहीं, कहा जाता है कि वह कई-कई दिन तक उपवास पर रहते थे और यह भगवान शिव की ही दया रहती थी कि ठंड में कांपते शरीर के साथ भी "परम" (हरछण ब्रह्माकार वृति) के ध्यान में पूरी तरह से लीन रहते थे।

वृंदावन की महिमा से यूं हुए थे आकर्षित

महाराज जी बनारस में एक रोज पेड़ के नीचे ध्यान लगाए हुए थे, तभी वह श्री श्यामा श्याम की कृपा से वृंदावन की महिमा के प्रति आकर्षित हुए। आगे चलकर एक संत की प्रेरणा ने उन्हें एक रास लीला में भाग लेने के लिए राजी किया, जो स्वामी श्री श्रीराम शर्मा की ओर से आयोजित की जा रही थी। उन्होंने एक महीने तक रास लीला में हिस्सा लिया। सुबह वह श्री चैतन्य महाप्रभु की लीला और रात में श्री श्यामा-श्याम की रास लीला देखते थे। एक महीने में ही वह इन लीलाओं को देखने में इतना मुग्ध और आकर्षित हो गए कि वह उनके बिना जीवन जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। यह एक महीना उनके जीवन का "टर्निंग प्वाइंट" माना जाता है।






वृंदावन में 'बसता है महाराज जी का दिल'

बाद में स्वामी जी की सलाह पर और श्री नारायण दास भक्तमाली (बक्सर वाले मामाजी) के एक शिष्य की मदद से महाराज जी मथुरा जाने वाली ट्रेन में सवार हो गए, यह न जानते हुए कि वृंदावन हमेशा के लिए उनका दिल चुरा लेगा। वह बिना किसी परिचित के वृंदावन पहुंचे थे, जहां शुरुआती दिनचर्या में वृंदावन की परिक्रमा और श्री बांके बिहारी के दर्शन शामिल हुआ करते थे। बांके बिहारी जी के मंदिर में उन्हें एक संत ने कहा कि उन्हें श्री राधावल्लभ मंदिर भी जाना चाहिए।

संन्यासी से कैसे बन गए राधा वल्लभी संत

महाराज जी राधावल्लभ जी को निहारते घंटों खड़े रहते। गोस्वामी जी ने इस पर ध्यान दिया और उनके प्रति स्वाभाविक स्नेह विकसित हुआ। एक दिन पूज्य श्री हित मोहितमारल गोस्वामी ने श्री राधारससुधानिधि का एक श्लोक सुनाया, पर महाराज जी संस्कृत में पारंगत होने के बावजूद इसके गहरे अर्थ को समझने में असमर्थ थे। गोस्वामी जी ने तब उन्हें श्री हरिवंश के नाम का जाप करने के लिए प्रोत्साहित किया। महाराज जी शुरू में ऐसा करने से हिचक रहे थे। हालांकि, अगले दिन जैसे ही उन्होंने वृंदावन परिक्रमा शुरू की, उन्होंने खुद को श्री हित हरिवंश महाप्रभु की कृपा से उसी पवित्र नाम का जप करते हुए पाया। इस तरह वह इस पवित्र नाम (हरिवंश) की शक्ति के कायल हो गए।


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